Monday, December 15, 2008

हक है मुझे

उड़ो तुम जरा बस उड़ने की कोशिश तो करो
पंख तुम्हरे मैं काटूँगा
क्यों कि हक है है मुझे
हसो तो सही तुम
मैं तुम्हें खून के आंसू रुलानुगा
क्यो कि हक है मुझे
तुम नदी सी बहने कि कोशिश तो करो
बाँध तुम पर मैं बनाऊंगा
क्यो कि हक है मुझे
जरा सी भी चंचला करो
तुम पर चपला बन कर मैं बरसूँगा
क्यो कि हक है मुझे
मैंने पुछा किस ने दिया यह हक तुम्हें
तो जवाब ख़ुद से ही मिल गया
कि मेरे कई रूप हैं
पिता हूँ भाई हूँ पति हूँ दोस्त हूँ बेटा हूँ
और तुम
तुम तो अबला हो नारी हो
इस लिए यह हक है मुझे....
अनु

4 comments:

धीरेन्द्र पाण्डेय said...

shandaar bahut khub achaa likha hai

Anonymous said...

gambheer rachana, stree apne aap ko jab tak ablaa samjhegi tab tak yahi hoga.

----------------"VISHAL"

Anonymous said...
This comment has been removed by the author.
vijay kumar sappatti said...

bahut sundar ji,

kavita bahut achi , stree-purush ke bhaavo ko aapne bahut sundar shabd diye hai


bahut badhai .

pls visit my blog : poemsofvijay.blogspot.com

vijay