Monday, January 5, 2009

रिश्ते

हमारी ज़िन्दगी रिश्तों पर ही क्यों निर्भर रहती है
जब की
मैंने हमेशा ही रिश्तों को
टूटते , बिखरते , रोते , सिसकते ही पाया ।
दिल हमेशा इन के दर्द से दुखी पाया
दिल को हमेशा इन के हाथों ही टूटते पाया
हमारे अपने रिश्तों को अपनों की
बाहों में ही दम तोड़ते पाया ।
प्यार की छाओ में पलते हैं जो
न जाने किस धुप में उन्हें झुलसते पाया
कुछ को शक की तो कुछ नफरत की भेट चदते पाया
कुछ को नज़्दिकियिओं की तो कुछ को दूरियों की
भेट चदते पाया ।
शायद हर रिश्ता अपना वक्त लिखा कर आता है
इतिहास में देखा तो बस इतना ही समझ आया।
फ़िर भी मैंने
रिश्तों को......
अनु